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सवेरा होते ही यह ख़बर फैल गई कि राजा
हरदौल कादिर ख़ाँ से लड़ने के लिए जा रहे
हैं। इतना सुनते ही लोगों में सनसनी-सी फैल गई
और चौंक उठे। पागलों की तरह लोग अखाड़े की
ओर दौड़े। हर एक आदमी कहता था कि जब
तक हम जीते हैं, महाराज को लड़ने नहीं देंगे,
पर जब लोग अखाड़े के पास पहुँचे तो देखा
कि अखाड़े में बिजलियाँ-सी चमक रही हैं। बुंदेलों के
दिलों पर उस समय जैसी बीत रही थी, उसका
अनुमान करना कठिन है। उस समय उस लंबे-चौड़े मैदान
में जहाँ तक निगाह जाती थी, आदमी ही आदमी
नज़र आते थे, पर चारों तरफ़ सन्नाटा था। हर
एक आँख अखाड़े की तरफ़ लगी हुई थी और
हर एक का दिल हरदौल की मंगल-कामना के लिए
ईश्वर का प्रार्थी था। कादिर ख़ाँ का एक-एक वार
हज़ारों दिलों के टुकड़े कर देता था और हरदौल
की एक-एक काट से मनों में आनंद की लहरें
उठती थीं। अखाड़ों में दो पहलवानों का सामना था
और अखाड़े के बाहर आशा और निराशा का। आख़िर
घड़ियाल ने पहला पहर बजाया और हरदौल की तलवार
बिजली बनकर कादिर के सिर पर गिरी। यह देखते
ही बुंदेले मारे आनंद के उन्मत्त हो गए। किसी
को किसी की सुधि न रही। कोई किसी से
गले मिलता, कोई उछलता और कोई छलाँगें मारता था।
हज़ारों आदमियों पर वीरता का नशा छा गया। तलवारें
स्वयं म्यान से निकल पड़ीं, भाले चमकने लगे। जीत
की खुशी में सैंकड़ों जानें भेंट हो गईं। पर
जब हरदौल अखाड़े से बाहर आए और उन्होंने बुंदेलों
की ओर तेज़ निगाहों से देखा तो आन-की-आन में
लोग सँभल गए। तलवारें म्यान में जा छिपीं। ख्य़ाल
आ गया। यह खुशी क्यों, यह उमंग क्यों और
यह पागलपन किसलिए? बुंदेलों के लिए यह कोई नई
बात नहीं हुई। इस विचार ने लोगों का दिल
ठंडा कर दिया। हरदौल की इस वीरता ने उसे
हर एक बुंदेले के दिल में मान प्रतिष्ठा की
ऊँची जगह पर बिठाया, जहाँ न्याय और उदारता भी
उसे न पहुँचा सकती थी। वह पहले ही से
सर्वप्रिय था और अब वह अपनी जाति का वीरवर
और बुंदेला दिलावरी का सिरमौर बन गया। राजा जुझार
सिंह ने भी दक्षिण में अपनी, योग्यता का परिचय
दिया। वे केवल लड़ाई में ही वीर न थे,
बल्कि राज्य-शासन में भी अद्वितीय थे। उन्होंने अपने सुप्रबंध
से दक्षिण प्रांतों का बलवान राज्य बना दिया और
वर्ष भर के बाद बादशाह से आज्ञा लेकर वे
ओरछे की तरफ़ चले। ओरछे की याद उन्हें सदैव
बेचैन करती रही। आह ओरछा! वह दिन कब आएगा
कि फिर तेरे दर्शन होंगे! राजा मंज़िलें मारते चले
आते थे, न भूख थी, न प्यास, ओरछेवालों की
मुहब्बत खींचे लिए आती थी। यहाँ तक कि ओरछे
के जंगलों में आ पहुँचे। साथ के आदमी पीछे
छूट गए। दोपहर का समय था। धूप तेज़ थी।
वे घोड़े से उतरे और एक पेड़ की छाँह
में जा बैठे। भाग्यवश आज हरदौल भी जीत की
खुशी में शिकार खेलने निकले थे। सैंकड़ों बुंदेला सरदार
उनके साथ थे। सब अभिमान के नशे में चूर
थे। उन्होंने राजा जुझारसिंह को अकेले बैठे थे देखा,
पर वे अपने घमंड में इतने डूबे हुए थे
कि इनके पास तक न आए। समझा कोई यात्री
होगा। हरदौल की आँखों ने भी धोखा खाया। वे
घोड़े पर सवार अकड़ते हुए जुझारसिंह के सामने आए
और पूछना चाहते थे कि तुम कौन हो कि
भाई से आँख मिल गई। पहचानते ही घोड़े से
कूद पड़े और उनको प्रणाम किया। राजा ने भी
उठ कर हरदौल को छाती से लगा लिया, पर
उस छाती में अब भाई की मुहब्बत न थी।
मुहब्बत की जगह ईर्ष्या ने घेर ली थी और
वह केवल इसीलिए कि हरदौल दूर से नंगे पैर
उनकी तरफ़ न दौड़ा, उसके सवारों ने दूर ही
से उनकी अभ्यर्थना न की। संध्या होते-होते दोनों भाई
ओरछे पहुँचे। राजा के लौटने का समाचार पाते ही
नगर में प्रसन्नता की दुंदुभी बजने लगी। हर जगह
आनंदोत्सव होने लगा और तुरता-फुरती शहर जगमगा उठा। आज
रानी कुलीना ने अपने हाथों भोजन बनाया। नौ बजे
होंगे। लौंडी ने आकर कहा, महाराज, भोजन तैयार है।
दोनों भाई भोजन करने गए। सोने के थाल में
राजा के लिए भोजन परोसा गया और चाँदी के
थाल में हरदौल के लिए। कुलीना ने स्वयं भोजन
बनाया था, स्वयं थाल परोसे थे और स्वयं ही
सामने लाई थी, पर दिनों का चक्र कहो, या
भाग्य के दुर्दिन, उसने भूल से सोने का थाल
हरदौल के आगे रख दिया और चांदी का राजा
के सामने। हरदौल ने कुछ ध्यान न दिया, वह
वर्ष भर से सोने के थाल में खाते-खाते उसका
आदी हो गया था, पर जुझार सिंह तिलमिला गए।
जबान से कुछ न बोले, पर तेवर बदल गए
और मुँह लाल हो गया। रानी की तरफ़ घूर
कर देखा और भोजन करने लगे। पर ग्रास विष
मालूम होता था। दो-चार ग्रास खा कर उठ आए।
रानी उनके तेवर देख कर डर गई। आज कैसे
प्रेम से उसने भोजन बनाया था, कितनी प्रतीक्षा के
बाद यह शुभ दिन आया था, उसके उल्लास का
कोई पारावार न था; पर राजा के तेवर देख
कर उसके प्राण सूख गए। undefined undefined undefined